देश की अपेक्षा यह है कि आतंकवाद को निर्णायक रूप से परास्त किया जाए। ऐसा नहीं हो पा रहा है, तो सरकार और सुरक्षा तंत्र को अपनी अब तक की रणनीति पर सिरे से पुनर्विचार करना चाहिए। छह जुलाई को जम्मू-कश्मीर के कुलगाम में आतंकवादियों के हमले में सेना को दो जवान मारे गए। उसके बाद जवाबी कार्रवाई में सेना ने छह दहशतगर्दों को ढेर कर दिया। मगर सिर्फ दो दिन बाद- आठ जुलाई की रात कठुआ में सेना के कारवां पर आतंकवादियों ने और भी ज्यादा घातक हमला किया। इसमें पांच सैनिकों की जान गई। बीते एक महीने में आतंकवादी गतिविधियों से संबंधित अनेक घटनाएं हुई हैँ। यह याद करना उचित होगा कि पिछले नौ जून को जिस समय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी अपने तीसरे कार्यकाल के लिए शपथ ग्रहण कर रहे थे, ठीक उसी समय जम्मू-कश्मीर में एक आतंकवादी हमला हुआ था। उसके बाद से ऐसी घटनाओं का एक सिलसिला बना हुआ है।
यह इस बात का साफ संकेत है कि जम्मू-कश्मीर में आतंकवाद का एक नया दौर आया हुआ है। इससे कई गंभीर प्रश्न खड़े होते हैं। क्या राज्य प्रशासन एवं वहां के सुरक्षा तंत्र को इस बात का कोई सुराग नहीं था कि खास कर जम्मू इलाका आतंकवाद का नया अड्डा बन रहा है? आतंकवादियों के पास से जिस तरह के आधुनिक हथियार बरामद हुए हैं, उससे अनुमान लगाया जा सकता है कि उन्हें सीमा पार से मदद मिल रही होगी। तो फिर सवाल यह उठता है कि सीमा पर चौकसी एवं घुसपैठ रोकने के उपायों का क्या हुआ? केंद्र सरकार को यह अवश्य समझना चाहिए कि ऐसी घटनाओं के लगातार होने से देशवासियों के मनोबल पर चोट लगती है। अब सोच का यह कवच भी नहीं है कि अनुच्छेद 370 के कारण आतंकवाद रोकने में कामयाबी नहीं मिल रही है। ऐसी दलीलें ज्यादा काम की नहीं हैं कि जितने सुरक्षा कर्मी मारे गए हैं, उनसे ज्यादा आतंकवादियों को ढेर किया गया है। देश की अपेक्षा यह है कि आतंकवाद को निर्णायक रूप से परास्त किया जाए।
ऐसा नहीं हो पा रहा है, तो सरकार और सुरक्षा तंत्र को अपनी अब तक की रणनीति पर सिरे से पुनर्विचार करना चाहिए। जम्मू-कश्मीर के लोगों का दिल जीतना और सीमा पार के दखल को नियंत्रित करना दो ऐसी चुनौतियां हैं, जिनका मुकाबला किए बगैर संभवत: समस्या काबू में नहीं आएगी।
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